Friday, 17 May 2013

नारी तुम केवल श्रद्धा हो ???

आज मन बहुत विक्षुब्ध है । बहुत दिनों से अख़बार के पन्ने तलाश रही थी,  इस आस में कि कभी किसी दिन अख़बार का कोई ऐसा अंक मिल जाये जिसमें मानवता के तार-तार  होने का कोई समाचार न हो । आज बीस दिन हो गए,  लेकिन ऐसा कोई अंक मिला ही नहीं । बचपन में हिंदी की किताबों में जयशंकर प्रसाद की  एक पंक्ति पढ़ी थी ....नारी तुम केवल श्रद्धा हो… लेकिन आज जब अख़बार के पन्ने पलटती हूँ तो समझ में ही नहीं  आता कि नारी श्रद्धा कैसे है ? अख़बार में पढ़ कर, टी .वी . में देखकर तो यही लगता है कि नारी आज श्रद्धा नहीं, बल्कि  भोग्या हो गयी है । देश के हर कोने में जब जहा जिसका दिल करता है, वही भोग लगा लेता है… और ये अपंग समाज मूकदर्शक बना देखता रहता है ।  

यह वही देश है और वही समाज है जिसने नारी की अनेक रूपों में पूजा की है और आज भी करता आ रहा है। गंगा मैया से लेकर धरती मैया तक और प्रकृति से लेकर देवी मूर्ति के पत्थरों तक इस समाज में हमेशा से नारी को एक पूज्यनीय और सम्मानित स्थान मिला है। तभी तो वेद-शास्त्रों में कहा गया कि " यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमन्ते तत्र देवताः"।  गार्गी, लोपामुद्रा  जैसी विदुषियों से लेकर चाँदबीवी, रानी लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगनाओं ने देश के मस्तक को हमेशा ऊँचा रखा । लेकिन जैसे-जैसे हम जीवन में तरक्की करते गए, वैसे-वैसे ही हमारे मन के विकार बढ़ते गए।  कहने को तो आज स्त्रियाँ पुरुषों के साथ हर क्षेत्र में कंधे से कन्धा मिलाकर खडीं हैं, लेकिन ये समानता इस समाज में मौजूद कुछ विकृत मानसिकता वाले लोगो से देखी नहीं जा रही है या मैं ये सोच लूं कि अब समाज में विकृत मानसिकता वाले लोगों का एक समूह खड़ा हो गया है । तभी तो पिछले बीस दिनों से मुझे अख़बार का कोई अंक ऐसा नहीं मिला जिसमें किसी महिला के साथ किसी तरह की दरिंदगी का कोई समाचार ना हो । 

मैं यहाँ कोई सलाह देने, कोई उपदेश देने या किसी प्रकार की विनती करने के लिए नहीं लिख रही हूँ । मैं तो बस हैरान और परेशान हूँ । ये परेशानी तब और बढ़ जाती है जब मेरे पति मुझे कही अकेले जाते समय कहते हैं की ये दिल्ली है, संभल के जाना, ये टीस तब और गहरी हो जाती है, जब मैं सुनती हूँ कि दिल्ली महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं रही ...अपने ही देश में एक कैदी बन कर रह गयी हूँ मैं ...केवल समाज के चंद लोगों की वजह से । ये संख्या बहुत ज्यादा नहीं होगी, लेकिन ये चंद छिछोरे लोग समाज के सब अच्छे लोगों पर भारी पड़ जाते हैं । या मैं ये समझ लूं कि आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम मानवीय संवेदनाएं भूल चुके हैं । तभी तो एक व्यस्त सड़क पर दामिनी घंटों घायल अवस्था में पड़ी रहती है और कोई उसकी सुध नहीं लेता है या एक अच्छे खासे एरिया में पूरी भीड़ एक लड़की के कपड़े फाड़ रही होती है और लोग मूकदर्शक बने देख रहे होते हैं  । 

जहां जयशंकर प्रसाद जी ने नारी को श्रद्धा बताते हुए उसका गुणगान किया, वही मैथली शरण गुप्त जी ने उसकी दशा पर क्षोभ व्यतीत करते हुए नारी को अबला कहा:
अबला नारी ! हाय तेरी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में  पानी । 

आज भले ही कुछ स्त्रियों  ने समाज के हर क्षेत्र में अपने नाम का डंका बजाया है और कही-कही तो वे इस तथाकथित पुरुष-प्रधान समाज में पुरुषों से मीलों आगे खड़ीं हैं । लेकिन ये उँगलियों पर गिनी जाने वाली संख्या हम सभी स्त्रियों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती हैं, खास तौर से उन गृहिणियों का जिनके कदम समाज के अनगिनत बंधनों ने जकड़ रखे हैं और ये सम्पूर्ण संख्या कुल महिलाओं की संख्या का 80 प्रतिशत तो होगी ही । मैं तो हैरान और परेशान अपने जैसी इन 80 प्रतिशत महिलाओं के लिए हूँ । नारी के ऊपर लोगों ने खूब लिखा और पूरे मन से लिखा । 
कुछ और पंक्तियाँ साझा करना चाहूंगी :
अर्ध सत्य तुम अर्ध स्वप्न तुम, अर्ध निराशा आशा,
अर्ध अजित-जित अर्ध तृप्ति तुम, अर्ध अतृप्ति पिपासा 
आधी काया आग तुम्हारी, आधी काया पानी,
वन्दनीया  नारी ! तुम जीवन की आधी परिभाषा || 


क्या पंक्तियाँ हैं ये | पढ़ने के बाद सिर गर्व से ऊँचा हो जाता है कि मैं एक स्त्री हूँ, एक बहन हूँ, एक पत्नी हूँ, एक बेटी हूँ और एक होने वाली माँ हूँ। लेकिन फिर भी मैं परेशान हूँ | मेरी इस हैरानी और परेशानी का हल किसके पास है, मुझे नहीं पता | मैंने यहाँ वही लिखा, जो मेरे दिल ने कहा , जो मैं अपनी रोज की जिंदगी में सोचती हूँ, जो मैं अपने आस-पास होते देखती हूँ |  आपका भी मन क्षुब्ध होता होगा ऐसी घटनाओं से, लेकिन मुझे कोई सहानभूति नहीं चाहिए । मेरा तो बस एक सवाल है आप सभी से, एक स्त्री आपके लिए क्या है: भोग्या, वंदनीया, अबला या श्रद्धा ???  नारी के लिए ये सारी उपमाएं मेरे अपने दिमाग की उपज नहीं हैं । एक नारी की ये सभी परिभाषाएं  तो इसी पुरुष-प्रधान  समाज के कुछ महान पुरुषों ने दी हुयी हैं और मुझे यकीन है कि ये सवाल सिर्फ मेरा ही नहीं है, मेरी जैसी हजारों- करोड़ों स्त्रियों का है जो अपने खुद के देश में , अपने खुद के समाज में अपनी मर्जी से जीना चाहती हैं |  

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