Thursday, 20 June 2013

बाल-विवाह : एक अभिशाप

हिन्दू समाज में विवाह एक बहुत बड़ा अनुष्ठान है । इसको माता पिता की सबसे बड़ी जिम्मेदारी समझा जाता है । विवाह होने के पहले बच्चे माँ बाप के संरक्षण में देश-दुनिया की जिम्मेदारियों  से परे अपने जीवन में मस्त रहते हैं । विवाह के बाद ही उन्हें जीवन की अनेक जिम्मेदारियों का बोध होता है और वे इस समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को भली-भाँति समझने लगते हैं । हर माता-पिता को अपने सन्तान के विवाह की चिंता रहती है, लेकिन वे अपने इस शौक को पूरा करते समय कुछ साधारण सी बातें भूल जाते हैं, जिसका नतीजा होता है- बाल विवाह । सरकार ने कानूनी तौर पर लड़के और लड़कियों के विवाह की एक न्यूनतम आयु तय कर रखी है, लड़कों के लिए 21 वर्ष और लड़कियों के लिए 18 वर्ष । अगर विवाह के समय इनमे से किसी की भी आयु इससे कम होती है, तो वह विवाह, बाल-विवाह की सूची में आता है ।

बाल विवाह एक कुप्रथा है, जिसको समाप्त करने के लिए एक लम्बे अरसे से तरह -तरह के प्रयास किये जा रहे हैं, केवल कानूनी स्तर पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक स्तर पर भी। लेकिन इन तमाम प्रयासों के बावजूद भारत में बाल-विवाह नाम की इस कुप्रथा का अंत नहीं हो पा रहा है । बाल विवाह इस देश के बच्चों के लिए एक अभिशाप की तरह है । इससे न सिर्फ बच्चों का केवल मानसिक व शारीरिक शोषण होता है , बल्कि पढ़ने और खेलने के उम्र में उनके ऊपर शादी जैसी जिम्मेदारी आ जाती है । जिस शादी शब्द का मतलब वे भलीभाती समझते भी नहीं,  उसकी जिम्मेदारी उनके ऊपर थोप दी जाती है ।

अभी हाल में आई यूनिसेफ की एक रिपोर्ट में यह खुलासा किया गया है कि देश में 47 फीसदी लड़कियों की शादी 18  वर्ष से पहले तथा 18 फीसदी लड़कियों की शादी 15 वर्ष से पहले होती है । 22 फीसदी लड़कियां 18 वर्ष से पहले ही माँ बन जाती है ! यह रिपोर्ट हमारे सामाजिक जीवन के उस स्याह पहलू कि ओर इशारा करती है ,जिसे अक्सर हम रीति -रिवाज व परम्परा के नाम पर अनदेखा करते है । क्या विडम्बना है कि जिस देश में महिलाएँ राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हो चुकी हों , वहाँ बाल विवाह जैसी कुप्रथा के चलते लड़कियां अपने अधिकारों से वंचित कर दी जाती है । 

बाल विवाह न केवल लड़कियों के सेहत के लिहाज से , बल्कि उनके व्यक्तिगत विकास की लिहाज से भी खतरनाक है। शिक्षा, जो कि उनके भविष्य का उज्जवल द्वार माना जाता है , हमेशा के लिए बंद हो जाता है । कम उम्र में शादी होने की वजह से लडकियाँ अपनी शिक्षा नहीं पूरी कर पाती है ।यही कारण है कि महिला साक्षरता के मामले में भारत बहुत पीछे हो जाता है. शादी के बाद बहुत कम लड़कियां ही अपनी शिक्षा जरी रख पाती हैं , ज्यादातर का सारा समय तो अपने ससुराल की जिम्मेदारियाँ निभाने में ही बीत जाता है ।  बाल विवाह कि वजह से वे कम उम्र में माँ बन जाती हैं ,जिसके लिए वे शारीरिक रूप से सक्षम नहीं होती हैं । कम उम्र में माँ बनना, माँ व बच्चे दोनों के लिए घातक होता है ,जिससे कि बाल मृत्यु दर बढ़ता है व माँ की भी मृत्यु होने की सम्भावना होती है । 

आज देश में शादी की एक न्यूनतम आयु भले निर्धारित है और क़ानून में इसके लिए कड़े नियम भी हैं कि कोई भी माता -पिता इससे कम उम्र  में अपने बच्चों कि शादी न करा सके ।  इसके लिए जेल व जुर्माने दोनों का प्रावधान है । 1929 में पारित बाल विवाह एक्ट, जिसको शारदा एक्ट भी कहते है , आज भी पूरे देश में लागू है । बाल विवाह को रोकने के लिए हमारे देश में बहुत सारी संस्थाएँ भी काम करती है । फिर भी देश के अधिकाँश हिस्सों में बिना किसी डर के बाल- विवाह लगातार और बहुतायत में हो रहे हैं । भारत में बाल-विवाह से मुख्य रूप से प्रभावित राज्य राजस्थान ,बिहार ,मध्य प्रदेश ,उत्तर प्रदेश ,आन्ध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल हैं ।

शहरों में स्थितियां लगातार सुधर रही हैं, लेकिन देश के गावों में अभी भी बाल-विवाह बड़े पैमाने पर हो रहे हैं जिसकी सबसे बड़ी वजह है अशिक्षा और गरीबी । दहेज कम देना पड़े इसके लिए माँ-बाप कम उम्र में ही लड़कियों कि शादी कर देते है , उन्हें लगता है कि ज्यादा पढ़ी लिखी लड़की के शादी में ज्यादा दहेज देना पड़ेगा । लड़की को एक बड़ा बोझ समझा जाता है, इसलिए माँ- बाप जल्द से जल्द इस बोझ को उतारने के चक्कर में कम उम्र में ही लड़कियों की शादी कर देते हैं, लेकिन यही बाल विवाह बच्चों को लिंगभेद , बीमारी व गरीबी के भंवर जाल में फंसा देता है ।पति-पत्नी दोनों ही शारीरिक रूप से परिपक्व नहीं होते है और परिणामस्वरूप वे एक स्वस्थ और दीर्घायु संतान को जन्म नहीं दे पाते हैं । जल्दी शादी का ये दुष्परिणाम व्यक्ति या परिवार को ही नहीं बल्कि समाज व देश को भी भुगतना पड़ता है .जनसंख्या में वृद्धि होती है ,जिससे विकास कार्यो में बाधा पहुँचती है ।

किशोरावस्था एक ऐसी अवस्था होती है ,जिसमें हम हजारों सपने बुनते है । कुछ करने की, कुछ बनने की इच्छा होती है । इस अवस्था में तो बच्चों का शारीरिक व मानसिक विकास तेजी से होता है । लेकिन उनके माता -पिता के द्वारा उनका बाल विवाह कर दिया जाता है , तो उनके सारे सपने अधूरे रह जाते है । वे अपना बचपन नहीं जी पाते । बचपन के खेलकूद , दोस्तों व सखी -सहेलियों के साथ हँसी ठिठोली और कुछ करने व बनने के जो हजारों सपने होते है ,वे सब ख़त्म हो जाते है । 

ये सपने खत्म न हों, किसी का बचपन न छीने, कोई कम उम्र में विधवा न बन जाये, इन सभी समस्याओं को दूर करने के लिए बाल-विवाह का उन्मूलन जरूरी है । यह केवल कानून बनाने या उसका कड़ाई से पालन करने से सम्भव नहीं है । इसके लिए तो समाज में जागरूकता लानी होगी, लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देना होगा, इसके विरुद्ध एकजुट होकर आवाज उठानी होगी, तब शायद हम इस कुप्रथा का अंत करने में सफल हो सकेंगे |

Note: This entry is written for Ring The Bell Campaign of Indiblogger to stop the violence against the women.

Thursday, 6 June 2013

आखिर कब जागेंगे हम ?

सुनने में आया है कि मेडागास्कर की मिट्टी बहने लगी है , कभी बर्फ से घिरा रहने वाला उत्तरी ध्रुव आजकल बर्फ के टुकड़ों का मैदान सा बन गया है, अलास्का के बर्फीले ग्लेशियर झील बन गए हैं | जहाँ देखो वही मौसम में अप्रत्याशित और बेतहाशा बदलाव नजर आ रहा है ।   जिधर देखो उधर ग्लोबल वार्मिंग की चर्चा हो रही है | अगर ऐसे ही सब कुछ चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब हवाई और फिजी जैसे द्वीप, मुंबई और वेनिस जैसे शहर और हिमालय की बर्फीली चोटियाँ सिर्फ इतिहास की बातें रह जाएंगी | पता नहीं उस भविष्य में बीते इतिहास की कहानी सुनाने को कोई बचेगा भी या नहीं? 
इन सब वजहों का सिर्फ एक कारण पेड़ों  का कटना व पर्यावरण का प्रदूषित होना है | पेड़ पौधे निरन्तर कट रहे हैं और इनके कटने से धरती का तालमेल बिगड़ रहा है |  पर्यावरण भी दूषित हो रहा है | पेड़ से ही तो हमें शुद्ध हवा मिलती है |  यदि इन स्रोतों को हम लालच में काटते रहेंगे तो आने वाले दिनों में विकराल स्थिति उत्पन्न हो जाएगी | सबसे पहले तो शुद्ध हवा ही नही मिलेगी, दूसरा वातावरण में फैले प्रदूषण  से कई परेशानियाँ  होने लगेगी | पेड़ों  के अभाव में बारिश भी कम होगी | प्रकृति के सौन्दर्य का आनन्द हम तभी ले सकते है, जब हम प्रकृति के साथ कोई छेड़छाड़ न करे और उसे सदा हर -भरा बनाए रखे | 
इन सबके लिए कुछ जरूरी कदम उठाये जाने की आवश्यकता है | परिवार के किसी भी सदस्य के जन्मदिन पर कम से कम एक पेड़ लगायें या किसी मांगलिक कार्य आदि में भी पौधारोपण करने का प्रयास करें | खुद भी पौधारोपण करें और लोगों को भी पौधा वृक्षारोपण के लिए प्रेरित करें | 
घर में अगर जगह न हो, तो गमलों में पेड़ लगाए और घर के बाहर उचित जगह हो, तो नीम ,आम ,अमरुद आदि के पेड़ लगायें | इससे गर्मी के दिनों में घर के अंदर का तापमान बना रहता है और घर भी प्राकृतिक रूप से ठंडा रहता है | 

पर्यावरण को बचाने के उपाय - १ .  पेड़ लगाएँ  2.  प्लास्टिक  की जगह कपड़े के थैले इस्तेमाल  करें  3. फिजूल का बल्ब आदि न जलाएं 4. ध्वनि प्रदूषण न करें  5. निजी वाहन के स्थान पर बस आदि का इस्तेमाल करें 

Wednesday, 22 May 2013

चीनी प्रधानमंत्री की भारत यात्रा के मायने

चीन के प्रधानमंत्री ली केचियांग की भारत यात्रा को कई मायनों में अभूतपूर्व व ऐतिहासिक घोषित करने वालो की कमी नहीं है । यह कहा जा रहा है कि नये चीनी प्रधानमंत्री ने अपनी पहली विदेशयात्रा के लिए भारत को चुना, जिससे वह पूरे विश्व कों संकेत दे रहे हैं  कि भारत को कितनी अहमियत देते है । और संयोग यह है कि कुछ दिन पहले लद्दाख वाले इलाके में दौलत बेग ओल्डी के पास सीमा विवाद के कारण युद्ध के आशंका हो रही थी । और इस बात की आशंका थी कि 1 9 6 2 की दुखदायी त्रासदी कभी भी ताज़ा हो सकती है । 

चीनी प्रधानमंत्री ने अपनी इस यात्रा के दौरान यह बात कही है कि लंबे समय से चले आ रहे सीमा विवाद का निपटारा वह शांतिपूर्ण ढंग से करना चाहते हैं  और इस काम के लिए कारगार मशीनरी की व्यवस्था की जानी चाहिए । मुद्दा यह है कि यदि सीमा विवाद भारत के साथ इतने लम्बे समय से चला आ रहा है तो उसकी जिम्मेदारी क्या अकेले भारत की है ? दूसरा सवाल कही चीनी प्रधानमंत्री यह तो संकेत नहीं कर रहे है कि हाल की तनाव बढ़ाने वाली भड़काऊ सैनिक कार्रवाई के लिए भारत खुद जिम्मेदार था ? 

50 वर्ष पहले सिर्फ सीमा तक सीमित नदी जल विवाद आज कहीं विकराल रूप ले चुका है । इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत और चीन के बीच हितों का टकराव ब्रम्ह्पुत्र नदी पर एक बड़े बांध के निर्माण तक सिमटा हुआ नहीं है । भविष्य में हमारी ऊर्जा सुरक्षा को भी चीन एक बड़ी सीमा तक बंधक बना चुका है । हर जगह वह तेल -गैस के मामले में हमें पछाड़ता रहा है । जितने सुनियोजित ढंग से चीन ने भारत के गले में मोतियों की माला पहनायी है , उसे दोस्ती का उपहार समझना एक भारी भूल होगी ।


Friday, 17 May 2013

नारी तुम केवल श्रद्धा हो ???

आज मन बहुत विक्षुब्ध है । बहुत दिनों से अख़बार के पन्ने तलाश रही थी,  इस आस में कि कभी किसी दिन अख़बार का कोई ऐसा अंक मिल जाये जिसमें मानवता के तार-तार  होने का कोई समाचार न हो । आज बीस दिन हो गए,  लेकिन ऐसा कोई अंक मिला ही नहीं । बचपन में हिंदी की किताबों में जयशंकर प्रसाद की  एक पंक्ति पढ़ी थी ....नारी तुम केवल श्रद्धा हो… लेकिन आज जब अख़बार के पन्ने पलटती हूँ तो समझ में ही नहीं  आता कि नारी श्रद्धा कैसे है ? अख़बार में पढ़ कर, टी .वी . में देखकर तो यही लगता है कि नारी आज श्रद्धा नहीं, बल्कि  भोग्या हो गयी है । देश के हर कोने में जब जहा जिसका दिल करता है, वही भोग लगा लेता है… और ये अपंग समाज मूकदर्शक बना देखता रहता है ।  

यह वही देश है और वही समाज है जिसने नारी की अनेक रूपों में पूजा की है और आज भी करता आ रहा है। गंगा मैया से लेकर धरती मैया तक और प्रकृति से लेकर देवी मूर्ति के पत्थरों तक इस समाज में हमेशा से नारी को एक पूज्यनीय और सम्मानित स्थान मिला है। तभी तो वेद-शास्त्रों में कहा गया कि " यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमन्ते तत्र देवताः"।  गार्गी, लोपामुद्रा  जैसी विदुषियों से लेकर चाँदबीवी, रानी लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगनाओं ने देश के मस्तक को हमेशा ऊँचा रखा । लेकिन जैसे-जैसे हम जीवन में तरक्की करते गए, वैसे-वैसे ही हमारे मन के विकार बढ़ते गए।  कहने को तो आज स्त्रियाँ पुरुषों के साथ हर क्षेत्र में कंधे से कन्धा मिलाकर खडीं हैं, लेकिन ये समानता इस समाज में मौजूद कुछ विकृत मानसिकता वाले लोगो से देखी नहीं जा रही है या मैं ये सोच लूं कि अब समाज में विकृत मानसिकता वाले लोगों का एक समूह खड़ा हो गया है । तभी तो पिछले बीस दिनों से मुझे अख़बार का कोई अंक ऐसा नहीं मिला जिसमें किसी महिला के साथ किसी तरह की दरिंदगी का कोई समाचार ना हो । 

मैं यहाँ कोई सलाह देने, कोई उपदेश देने या किसी प्रकार की विनती करने के लिए नहीं लिख रही हूँ । मैं तो बस हैरान और परेशान हूँ । ये परेशानी तब और बढ़ जाती है जब मेरे पति मुझे कही अकेले जाते समय कहते हैं की ये दिल्ली है, संभल के जाना, ये टीस तब और गहरी हो जाती है, जब मैं सुनती हूँ कि दिल्ली महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं रही ...अपने ही देश में एक कैदी बन कर रह गयी हूँ मैं ...केवल समाज के चंद लोगों की वजह से । ये संख्या बहुत ज्यादा नहीं होगी, लेकिन ये चंद छिछोरे लोग समाज के सब अच्छे लोगों पर भारी पड़ जाते हैं । या मैं ये समझ लूं कि आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम मानवीय संवेदनाएं भूल चुके हैं । तभी तो एक व्यस्त सड़क पर दामिनी घंटों घायल अवस्था में पड़ी रहती है और कोई उसकी सुध नहीं लेता है या एक अच्छे खासे एरिया में पूरी भीड़ एक लड़की के कपड़े फाड़ रही होती है और लोग मूकदर्शक बने देख रहे होते हैं  । 

जहां जयशंकर प्रसाद जी ने नारी को श्रद्धा बताते हुए उसका गुणगान किया, वही मैथली शरण गुप्त जी ने उसकी दशा पर क्षोभ व्यतीत करते हुए नारी को अबला कहा:
अबला नारी ! हाय तेरी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में  पानी । 

आज भले ही कुछ स्त्रियों  ने समाज के हर क्षेत्र में अपने नाम का डंका बजाया है और कही-कही तो वे इस तथाकथित पुरुष-प्रधान समाज में पुरुषों से मीलों आगे खड़ीं हैं । लेकिन ये उँगलियों पर गिनी जाने वाली संख्या हम सभी स्त्रियों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती हैं, खास तौर से उन गृहिणियों का जिनके कदम समाज के अनगिनत बंधनों ने जकड़ रखे हैं और ये सम्पूर्ण संख्या कुल महिलाओं की संख्या का 80 प्रतिशत तो होगी ही । मैं तो हैरान और परेशान अपने जैसी इन 80 प्रतिशत महिलाओं के लिए हूँ । नारी के ऊपर लोगों ने खूब लिखा और पूरे मन से लिखा । 
कुछ और पंक्तियाँ साझा करना चाहूंगी :
अर्ध सत्य तुम अर्ध स्वप्न तुम, अर्ध निराशा आशा,
अर्ध अजित-जित अर्ध तृप्ति तुम, अर्ध अतृप्ति पिपासा 
आधी काया आग तुम्हारी, आधी काया पानी,
वन्दनीया  नारी ! तुम जीवन की आधी परिभाषा || 


क्या पंक्तियाँ हैं ये | पढ़ने के बाद सिर गर्व से ऊँचा हो जाता है कि मैं एक स्त्री हूँ, एक बहन हूँ, एक पत्नी हूँ, एक बेटी हूँ और एक होने वाली माँ हूँ। लेकिन फिर भी मैं परेशान हूँ | मेरी इस हैरानी और परेशानी का हल किसके पास है, मुझे नहीं पता | मैंने यहाँ वही लिखा, जो मेरे दिल ने कहा , जो मैं अपनी रोज की जिंदगी में सोचती हूँ, जो मैं अपने आस-पास होते देखती हूँ |  आपका भी मन क्षुब्ध होता होगा ऐसी घटनाओं से, लेकिन मुझे कोई सहानभूति नहीं चाहिए । मेरा तो बस एक सवाल है आप सभी से, एक स्त्री आपके लिए क्या है: भोग्या, वंदनीया, अबला या श्रद्धा ???  नारी के लिए ये सारी उपमाएं मेरे अपने दिमाग की उपज नहीं हैं । एक नारी की ये सभी परिभाषाएं  तो इसी पुरुष-प्रधान  समाज के कुछ महान पुरुषों ने दी हुयी हैं और मुझे यकीन है कि ये सवाल सिर्फ मेरा ही नहीं है, मेरी जैसी हजारों- करोड़ों स्त्रियों का है जो अपने खुद के देश में , अपने खुद के समाज में अपनी मर्जी से जीना चाहती हैं |